यह एक लंबा स्टेटिक शॉट है. प्लेटफार्म के अगले छोर पर जहां ट्रेन का इंजन आकर रूकता है, एक कैमरा रखा हुआ है. कैमरा ओपन होता है. हिल स्टेशन जैसी कोई जगह है. प्लेटफार्म पर ट्रेन के इंतज़ार में खड़ी भीड़ को कैमरा कैप्चर करता है. पुराने ज़माने का स्टीम इंजन ओल्ड पैटर्न बोगियों को खींचता हुआ फ्रेम में एंटर होता है. प्लेटफार्म पर अव्यवस्थित भीड़ में हलचल होती है. एक यात्री को ट्रेन पकड़ने की ज्यादा ही जल्दी है. उसके पीछे कुछ और यात्री ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ते हैं. कुछ चढ़ते हैं, कुछ उतरते हैं.
यह लगभग 49 सेकंड्स का एक जर्की, अनएडिट शॉट है. यही एकमात्र सीन है, यही फिल्म है. तकनीकी तर्क की कसौटी पर भले ही आज का दौर इसे फिल्म मानने से इंकार कर दे लेकिन यह एक महान फिल्म है. यह दुनिया की पहली फिल्म है. ‘चित्र चल भी सकते हैं’, दुनिया के इस पहले चमत्कार की ताकत ‘चलचित्र’ ने अपने शुरूआती सार्वजनिक प्रदर्शन में ही दिखा दी, जब यह मूवी लंदन में बड़े परदे पर अवतरित हुई तो इंजन को सीधे अपनी ओर आते देख दर्शक डर के मारे भाग खड़े हुए थे. मेडिकल एड की जरूरत भी पड़ गई. यही भारत में प्रदर्शित पहली फिल्म है. फिल्म थी ‘द अराइवल ऑफ ए ट्रेन एट ला सीटेट स्टेशन’ इसे बनाया था फ्रांस के लुमियर ब्रदर्स यानि अगस्टे और लुईस लुमियर ने. इसका पहला सार्वजनिक प्रदर्शन 25 जनवरी, 1896 को हुआ था. हमारे देश में इसका पहला प्रदर्शन 7 जुलाई, 1896 को बॉम्बे में हुआ था. बॉम्बे (मुंबई) में इसका प्रदर्शन संयोगवश हुआ.
एरिक बार्नो और एस. कृष्णा स्वामी की किताब के मुताबिक लुमियर ब्रदर्स अपनी फिल्म दुनिया को दिखाने की मुहिम पर निकले. जब वो आस्ट्रेलिया जा रहे थे तो रास्ते में बॉम्बे पड़ा. उन्होंने सोचा क्यों न यहां कुछ समय रूक कर इस कास्मोपॉलिटिन शहर में भी अपनी फिल्मों का प्रदर्शन किया जाए. बता दें लुमियर ने दस शार्ट फिल्में प्रदर्शित की थीं, मुंबई में संभवत: छह ‘ट्रेन’ को लुमियर इंडेक्स नंबर 653 का संबोधन मिला. बॉम्बे में लुमियर ब्रदर्स की फिल्मों को भरपूर दर्शक मिले. उत्साहित लुमियर बंधु प्रदर्शन के एक्सटेंशन को मजबूर हुए. हफ्ते भर बाद इन्हें नॉवेल्टी थिएटर में तीन दिनों तक दिखाया गया. पहली ही फिल्म को बॉक्स आफिस पर सफलता दिलाने के बाद बॉम्बे को फिल्म इंडस्ट्री का गढ़ बनने से भला कौन रोक सकता था, सो बना. बाद में बाम्बे फिल्म इंडस्ट्री से बॉलीवुड में तब्दील हुआ. हिंदुस्तान में तो नंबर वन है ही, हॉलीवुड से ज्यादा फिल्में बनाने वाले में भी बॉलीवुड का नाम शुमार है.
भारतीय सिनेमा की बात करें, उससे पहले इस बात पर डिस्कस कर लें कि हम सिनेमा पर बात कर ही क्यूं रहे हैं. दरअसल मल्टीप्लेक्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (MAI) ने आज यानि 23 सितम्बर, 2022 को नेशनल सिनेमा डे घोषित किया है. एमएआई असल में मूवी गोअर्स का शुक्रिया अदा करना चाहता है. साथ ही इस ओकेजन के बहाने उन सिने दर्शकों को थिएटर में फिल्म देखने का आमंत्रण भी देना चाहता है जिन्होंने कोविड-19 महामारी के बाद से सिनेमा हाल से दूरी बना ली है. मल्टीप्लेक्स एसोसिएशन और सिनेमाघरों ने 23 सितंबर को थिएटर मूवर्स के लिए 4000 से ज्यादा स्क्रींस की टिकट दरों में कटौती कर उसे रू 75.00 कर दिया है. भारतीय सिनेमा की बात करें तो इसकी शुरुआत इसके जनक दादा साहेब फाल्के से होती है.
भारत की पहली फुल लेंथ फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ थी, जिसे दादा साहेब फाल्के ने 1913 में बनाया था. यह एक मूक फिल्म थी जिसमें पुरूष पात्रों ने ही महिला चरित्र निभाए थे. भारतीय सिनेमा के जनक माने जाने वाले दादा साहेब फाल्के के सम्मान में उनके जन्म शताब्दी वर्ष 1969 में भारत सरकार द्वारा ‘दादा साहेब फाल्के अवार्ड’ शुरू किया गया. यह भारतीय सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित अवार्ड है. 14 मार्च, 1931, भारतीय सिनेमा के इतिहास का दूसरा महत्वपूर्ण दिन है. इससे पहले तक दर्शक पात्रों के हावभाव से ही अंदाज़ लगा पा रहे थे कि वो आपस में क्या बोल रहे हैं. इस दिन से सिने दर्शकों को सिनेमा के मूक पात्रों की आवाज़ भी सुनने को मिलने लगी. आर्दिशर ईरानी को भारतीय सिनेमा को सवाक बनाने श्रेय दिया जाता है, 14 मार्च, 1931 को भारतीय सिनेमा को पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ मिली. बॉक्स आफिस पर पैसों की बरसात भी इसी के बाद शुरू हुई, जो आज तक जारी है.
अब तो सिनेमा में ‘बर्स्ट’ भी होने लगे हैं. पहले फिल्में हिट होती थीं, फिर सुपर हिट हुईं, फिर सुपर-डुपर हिट और अब ब्लॉक बस्टर होने लगी हैं.भारतीय सिनेमा का जि़क्र सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, बुद्वदेव दासगुप्ता, अदूर गोपालकृष्ण, जी.अरविंदन, पद्मराजन, के बालचंदर, बालू महेन्द्र, मणिरत्नम, बी नरसिंग राव, नीरद मोहापात्रा, मणि कौल, कुमार शाहनी, केतन मेहता, और विजया मेहता के बिना भी अधूरा है. और भी नाम हैं. मसाला फिल्मों में भी अच्छा काम हुआ है लेकिन जानें दें लिस्ट लंबी हो जाएगी. दिमाग़ में आता है सिनेमा ‘लाईट-कैमरा-एक्शन’ की दुनिया है. फिर इसे हॉलीवुड, बॉलीवुड या टॉलीवुड क्यों कहा जाता है? मूविंग टेक्नॉलाजी की इस दुनिया में ये ‘वुड’ (लकड़ी) कहां से आ गया? अमेरिका के लॉस एंजेलस में स्थित एक शहर का नाम हॉलीवुड है, जो अमेरिकन फिल्म निर्माण का सेंटर है. इसीलिए इसे हॉलीवुड का नाम दिया गया.
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के नाम से जाने वाली बंबईया (अब मुंबईया) इंडस्ट्री को ‘बॉलीवुड’ का नाम मिला तो हॉलीवुड से ही, लेकिन वाया कोलकाता. 1930 के आसपास कलकत्ता की बंगाली फिल्म इंडस्ट्री टॉलीगंज इलाके से ऑपरेट होती थी. जिसे ‘हॉलीवुड’ की तर्ज पर ‘टॉलीवुड’ नाम मिला. ‘टॉलीवुड’ से इंस्पायर होकर ‘बॉलीवुड’ बना. दिलचस्प ये है कि कोलकाता के ‘टॉलीवुड’ का यह नाम बाद में पूरब से दक्षिण शिफ्ट हो गया. अब ‘टॉलीवुड’ के नाम से तेलुगु फिल्म इंडस्ट्री जानी जाती है. तमिल को ‘कालीवुड’ और कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री को ‘सेंडलवुड’ कहा जाता है.
हिंदी सिनेमा को दो भागों में बांटा जाता है. मूल धारा का सिनेमा जिसे मसाला फिल्मों के नाम से पुकारा जाता है. इनका निर्माण बाक्स ऑफिस कलेक्शन को ध्यान में रखकर ही रचा जाता है. दूसरा गंभीर सिनेमा जिसे समांतर और आर्ट सिनेमा का नाम दिया गया. श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी इनके प्रतिनिधि निर्देशक के रूप में पहचाने गए. जिन्होंने दर्शकों को बेहतर सिनेमा का रासास्वाद कराया. ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘भूमिका’, ‘मंथन’, ‘मंडी’, ‘चक्र’, ‘आक्रोश’, ‘अर्द्वसत्य’, ‘ज़ुनून’, ‘स्पर्श’ (सईं परांजपे), ‘गमन’ (मुज़फ्फर अली) ‘उमराव जान'(मुज़फ्फर अली), ‘बाज़ार’, ‘मासूम’ जैसा नया तेवर वाला सिनेमा दर्शकों से रूबरू हुआ. इन फिल्मों ने नसीरूद्दीन, ओमपुरी, अमोल पालेकर, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल जैसे कलाकारों को नया फिल्मी धरातल उपलब्ध कराया. बाद में इन्होंने मुख्य धारा की फिल्मों में भी अपनी अदाकारी के जलवे बिखेरे.
हिंदी सिनेमा के वैसे तो दो धाराओं की ही ज्यादा चर्चा होती है. लेकिन यहां एक तीसरी धारा भी मौजूद थी. मसाला फिल्मों में सिर्फ मनोरंजन था, तो अधिकांश समांतर फिल्मों में कड़वी सच्चाई थी. सोद्देश्य और कड़वी सच्चाई के चलते अधिकांश समांतर फिल्मों में मनोरंजन पक्ष नदारद था. इसकी पूर्ति के लिए एक और सिनेमा सामने आया जिसे मध्यमार्गी सिनेमा कहा गया. ये सोद्देश्य फिल्में अच्छी भी थीं और मनोरंजक भी. इस सिनेमा को रचने वालों में हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार, बासु चटर्जी, सईं परांजपे, आदि का शुमार किया जा सकता है, और भी नाम हैं. इन फिल्मों में ‘आनंद’, ‘गुडडी’, ‘परिचय’, ‘मेरे अपने’, ‘कोशिश’ ‘रजनीगंधा’, ‘कथा’, ‘चितचोर’, ‘चश्मे-बद्दूर’, ‘गोलमाल’, ‘चुपके-चुपके’ ‘खूबसूरत’ जैसे ढेर सारे नाम हैं.
आसान नहीं है फिल्म मेकिंग
मेक्सिकन फिल्म मेकर अलेजेंड्रो गोन्ज़ाल्विज़ कहते हैं ‘फिल्म मेकिंग आपको सब कुछ दे सकती है, लेकिन सेम टाईम यह आपसे सब कुछ ले भी सकती है.’ वैसे फिल्म है क्या? झूठ बोलने की खूबसूरत कला का नाम ही फिल्म है. आप एक काल्पनिक कहानी कहते हैं और दर्शकों से उम्मीद करते हैं कि वो इसे सच मान ले. जो फिल्म अपने झूठ मनवाने के इस मिशन में जितनी ज्यादा कामयाब होगी, वो उतनी ही ज्याद सफल भी. मशहूर फ्रेच-स्विस फिल्ममेकर, स्क्रीनराइटर और फिल्म क्रिटिक गोदार्ड कहते हैं ‘सिनेमा इज़ द मोस्ट ब्युटीफुल फ्रॉड इन द वर्ल्ड.’
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FIRST PUBLISHED : September 23, 2022, 11:44 IST